*मकर संक्रांति मनाने के पीछे हैं महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाएं- डॉ • परमानंद शुक्ल।
मकर संक्रांति सूर्य के मकर राशि में आने पर मनाया जाता है। इस दिन से सूर्य उत्तरायण हो जाते हैं और देवलोक में दिन आरंभ होता है। हिंदू धर्म में ऐसे अनेक कारण बताए गए हैं जिनकी वजह से मकर संक्रांति का सभी 12 संक्रांतियों में विशेष महत्व है। श्रमद्भगवतगीता में भी मकर संक्रांति को बेहद शुभ बताया गया है।
हिंदू धर्म में सूर्यदेवता से जुड़े कई प्रमुख त्योहारों को मनाने की परंपरा है। उन्हीं में से एक है मकर संक्राति। आज मकर संक्रांति का त्योहार मनाया जा रहा है। शीत ऋतु के पौस मास में जब भगवान भास्कर उत्तरायण होकर मकर राशि में प्रवेश करते हैं तो सूर्य की इस संक्रांति को मकर संक्राति के रूप में देश भर में मनाया जाता है। वैसे तो मकर संक्रांति हर साल 14 जनवरी को मनाई जाती है, लेकिन पिछले कुछ साल से गणनाओं में आए कुछ परिवर्तन के कारण इसे 15 जनवरी को भी मनाया जाने लगा है। इस साल भी मकर संक्रांति 15 जनवरी को मनाई जा रही है।
*मकर संक्रांति दान और स्नान का विशेष महत्व:*
शास्त्रों में मकर संक्रांति के दिन स्नान, ध्यान और दान का विशेष महत्व बताया गया है। पुराणों में मकर संक्रांति को देवताओं का दिन बताया गया है। मान्यता है कि इस दिन किया गया दान सौ गुना होकर वापस लौटता है।
*भीष्म पितामह ने चुना था देह त्याग के लिए मकर संक्रांति का दिन:*
मान्यता है कि इस अवसर पर दिया गया दान 100 गुना बढ़कर पुन: प्राप्त होता है। इस दिन शुद्ध घी एवं कंबल का दान मोक्ष की प्राप्ति करवाता है। महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिये मकर संक्रांति का ही चयन किया था। मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई सागर में जाकर मिली थीं।
मकर संक्रांति पौराणिक कथा
श्रीमद्भागवत एवं देवी पुराण के मुताबिक, शनि महाराज का अपने पिता से वैर भाव था क्योंकि सूर्य देव ने उनकी माता छाया को अपनी दूसरी पत्नी संज्ञा के पुत्र यमराज से भेद-भाव करते देख लिया था, इस बात से नाराज होकर सूर्य देव ने संज्ञा और उनके पुत्र शनि को अपने से अलग कर दिया था। इससे शनि और छाया ने सूर्य देव को कुष्ठ रोग का शाप दे दिया था।
*मकर संक्रांति और यमराज की तपस्या:*
पिता सूर्यदेव को कुष्ट रोग से पीड़ित देखकर यमराज काफी दुखी हुए। यमराज ने सूर्यदेव को कुष्ठ रोग से मुक्त करवाने के लिए तपस्या की। लेकिन सूर्य ने क्रोधित होकर शनि महाराज के घर कुंभ जिसे शनि की राशि कहा जाता है उसे जला दिया। इससे शनि और उनकी माता छाया को कष्ठ भोगना पड़ रहा था। यमराज ने अपनी सौतली माता और भाई शनि को कष्ट में देखकर उनके कल्याण के लिए पिता सूर्य को काफी समझाया। तब जाकर सूर्य देव शनि के घर कुंभ में पहुंचे।
मकर राशि में हुआ सूर्य का प्रवेश
कुंभ राशि में सब कुछ जला हुआ था। उस समय शनि देव के पास तिल के अलावा कुछ नहीं था इसलिए उन्होंने काले तिल से सूर्य देव की पूजा की। शनि की पूजा से प्रसन्न होकर सूर्य देव ने शनि को आशीर्वाद दिया कि शनि का दूसरा घर मकर राशि मेरे आने पर धन धान्य से भर जाएगा। तिल के कारण ही शनि को उनका वैभव फिर से प्राप्त हुआ था। इसलिए शनि देव को तिल प्रिय है। इसी समय से मकर संक्राति पर तिल से सूर्य एवं शनि की पूजा का नियम शुरू हुआ।
*दक्षिण भारत में पोंगल और मकरसंक्रांति का पर्व विशेष पर्व है।*
पोंगल दक्षिण भारत में मनाया जाने वाला एक प्रमुख पर्व है। पोंगल का वास्तविक अर्थ होता है उबालना। वैसे इसका दूसरा अर्थ नया साल भी है। गुड़ और चावल उबालकर सूर्य को चढ़ाए जाने वाले प्रसाद का नाम ही पोंगल है।
चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व के चार पोंगल होते हैं। पूर्णतया प्रकृति को समर्पित यह त्योहार फसलों की कटाई के बाद आदि काल से मनाया जा रहा है। नए धान का चावल निकाल कर उसका भोग बनाकर ,बैलों को एवं घरों को साफ़ सुथरा करके उन्हें सजाकर,भैया दूज की तरह भाइयों के लिए बहनों द्वारा लंबी आयु के लिए प्रार्थना करने की प्रथा ठीक उस प्रकार है जैसी उत्तर भारत में मनाये जाने वाले पर्वों में होती है जैसे -छठ, भैया दूज एवं गोवर्धन की पूजा। चार तरह के पोंगल क्रमशः इस प्रकार है – *भोगी पोंगल ,सूर्य पोंगल ,मट्टू पोंगल और कन्या पोंगल।* पहले दिन भोगी पोंगल में इन्द्रदेव की पूजा की जाती है। इंद्रदेव को भोगी के रूप में भी जाना जाता है। वर्षा एवं अच्छी फसल के लिए लोग इंद्रदेव की पूजा एवं आराधना पोंगल के पहले दिन करते हैं।
पोंगल की दूसरी पूजा सूर्य पूजा के रूप में होती है । इसमें नए बर्तनों में नए चावल,मूंग की दाल एवं गुड़ डालकर केले के पत्ते पर गन्ना, अदरक आदि के साथ पूजा करते हैं। सूर्य को चढ़ाए जाने वाले इस प्रसाद को सूर्य के प्रकाश में ही बनाया जाता है।
तीसरे दिन को मट्टू पोंगल के नाम से मनाया जाता है। मट्टू दरअसल नंदी अर्थात शिव जी के बैल की पूजा इस दिन की जाती है। कहते हैं शिव जी के प्रमुख गणों में से एक नंदी से एक बार कोई भूल हो गई उस भूल के लिए भोलेनाथ ने उसे बैल बनकर पृथ्वी पर जाकर मनुष्यों की सहायता करने को कहा। उसी के याद में आज भी पोंगल का यह पर्व मनाया जाता है।
चौथा पोंगल कन्या पोंगल है जो यहां के एक काली मंदिर में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता। इसमें केवल महिलाएं ही भाग लेती हैं।
प्राचीन काल में द्रविण शस्य उत्सव के रूप में इस पर्व को मनाया जाता था। तिरुवल्लुर के मंदिर में प्राप्त शिलालेख में मिलता है कि किलूटूंगा राजा पोंगल के अवसर पर जमीन और मंदिर गरीबों को दान में दिया करते थे। इस अवसर पर नृत्य समारोह एवं सांड के साथ साहसी जंग लड़ने की प्रथा थी। उस समय जो सबसे शक्तिशाली होता था उसे आज के दिन कन्याएं वरमाला डालकर अपना पति चुनती थी।
*पोंगल की कथा :* मदुरै के पति-पत्नी कण्णगी और कोवलन से जुड़ी है। एक बार कण्णगी के कहने पर कोवलन पायल बेचने के लिए सुनार के पास गया। सुनार ने राजा को बताया कि जो पायल कोवलन बेचने आया है वह रानी के चोरी गए पायल से मिलते जुलते हैं।राजा ने इस अपराध के लिए बिना किसी जांच के कोवलन को फांसी की सजा दे दी। इससे क्रोधित होकर कण्णगी ने शिव जी की भारी तपस्या की और उनसे राजा के साथ-साथ उसके राज्य को नष्ट करने का वरदान मांगा।
जब राज्य की जनता को यह पता चला तो वहां की महिलाओं ने मिलकर किलिल्यार नदी के किनारे काली माता की आराधना की। अपने राजा के जीवन एवं राज्य की रक्षा के लिए कण्णगी में दया जगाने की प्रार्थना की।
माता काली ने महिलाओं के व्रत से प्रसन्न होकर कण्णगी में दया का भाव जाग्रत किया और राजा व राज्य की रक्षा की। तब से काली मंदिर में यह पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। इस तरह चार दिनों के पोंगल का समापन होता है।
इस शुभ अवसर पर संपूर्ण भारतवासियों को पोंगल, लोहड़ी और मकर संक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाएं व बधाईयां देते हुए इस महत्वपूर्ण लेख को लिखने पर हमें बहुत खुशी हो रही है। इससे संपूर्ण भारतवासियों , शिक्षकों और विद्यार्थियों को विशेष ज्ञान प्राप्त होगा।