श्री रामचरित मानस वर्णन – आचार्य रविकांत जी

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एक बार भूपति मन माहीं

भै गलानि मोरे सुत नाहीं!!

गुरु गृह गयुऊ तुरत महिपाला

चरन लागि कर विनय विसाला!!नि

ज दुःख सुख सब गुरुहि सुनायऊ!

कहि वसिष्ठ बहु बिधि समझायऊ !!

चक्रवर्ती नरेश होने के बाद भी महाराज दशरथ के मन में क्षोभ है इससे यह सिद्ध होता है कि संपत्ति सुख के मृग तृष्णा की साधना नहीं केवल साधन है इसलिए महाराज आज दुःखी हैं!महीपति सोचते हैं कि राज्य धन संपत्ति सब कुछ तो है लेकिन उसको सही दिशा देने वाला पुत्र नहीं है, मानवी मन की वेदना है मेरे भाई!! संसार में अनेक व्यक्ति  हैं जो पुत्र के क्षोभ में दुःखी व चिंतित रहते हैं लेकिन समाधान नहीं पाते आज महाराज दशरथ समाधान की ओर बढ़ रहे हैं===!!     अपनी कामना की पूर्ति के लिए अवधेश कुलगुरु साक्षात वशिष्ठ के समक्ष अपने मनोभावों को प्रगट करते हैं और भगवान वशिष्ठ उन्हें निष्काम बनने का उपदेश नहीं देते हैं और न ही इस इच्छा को त्याग कर मुक्ति प्राप्त करने की प्रेरणा ही देते हैं बल्कि महाराज दशरथ से कहते हैं कि राजन! तुम्हें यज्ञ करना पड़ेगा, इसका तात्पर्य यह है कि यदि जीवन में कोई कामना है तो उसे यज्ञ से जोड़ देना चाहिए!

यज्ञ की अनेक प्रक्रिया जगत में अपनाई जाती है लेकिन हमारे लिए तो गुरुदेव भगवान द्वारा निर्देशित तीन प्रक्रियाओं में से गुरुदेव के अनुकम्पा पर आश्रित 1-जप ,

2- हव्य

 3- समर्पण

यज्ञ के स्वरूप और अर्थ पर थोड़ा विचार कर लें, हमारे जीवन में कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिन्हें हम अपने और अपने परिवार के कल्याण के लिए करते हैं पर यज्ञ का वास्तविक अर्थ ऐसे कर्म का संपादन करना जिसके मूल में सबके कल्याण की कामना निहित हो!लोक मंगल के लिए प्रत्येक व्यक्ति को यज्ञानुयायी होना चाहिए,यज्ञ हमारी प्राचीन उपासना पद्धति है श्री राम कथा तो सामूहिक शुद्धिकरण यज्ञ है।

भगवान वशिष्ठ तो महान हैं वें जानते हैं कि यदि किसी के जीवन में कामना हो तो उसे निष्कामता का उपदेश न देकर कैसे उसकी कामना को कल्याण कारी दिशा दी जाएं यह विचारणीय है आज समाज जो विगड़ा दिखाई दे रहा है उसके मूल में संग विगड़ गया है स्वयं भगवान श्री राम ने विभीषण से कहा था कि

बरु भल बास नरक कर ताता

दुष्ट संग  जनि  देइ  विधाता!!

 !! उष्णो दहति चाहंकारा: शीत:कृष्णायते कर:!!

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि==संगात् संजायते काम:कामात् क्रोधोभिजायते !! संसारियों का संग करोगे तो काम उत्पादन होगा और संत का संग करोगे तो काम नहीं श्री राम उत्पादन होगा!! संसारी के संग निन्दा और द्वेष की चर्चाएं हुआ करती हैं इसलिए मेरे माई बाप जीवन में संत का संग करने का प्रयास कीजिए!

अब समस्या यह है कि संत कौन है और उसकी पहचान कौन क्या है ? संत का कोई गणवेश नहीं होता,संत तो सर्वेश्वर का प्रतिनिधि होता है शास्त्रों में संत की अनेक परिभाषाएं दी गई है जिसमें से कुछ पर विचार करते हैं== आंखों में अमृत हो! भावनाओं में प्यार हो! विचारों में अस्पृश्य भाव हो,वाणी में सत्य हो, जीवन में ऋषियों की मर्यादा हो अथवा माथे पर  लिखा क्या है

हाथ में छुपा क्या है और हृदय में छिपा क्या है जो जान लें वो संत है !

एक बार देवर्षि नारद ने भगवान से पूछा प्रभु आप कहां निवास करते हैं तो परमात्मा ने मुस्कुराते हुए बोले देवर्षि!! आप को भी निवास पर संदेह है ? नहीं नहीं प्रभु लेकिन कभी कभी मुझे लगता है आप बैकुंठ में नहीं रहते हैं! यह तो सत्य है!तो प्रभु आप रहते कहां हो ? जगत पिता ने उत्तर दिया==

नाहं वसामि बैकुंठे नाहं योगिनाम् हृदयेन वा !

मद् भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद:!!

भगवान वशिष्ठ ने जो उपदेश महाराज दशरथ को दिया वह आज के संदर्भ में उतना ही जीवंत है जितना त्रेतायुग के सन्दर्भ में जीवंत था इसलिए जीवन में यदि कोई कामना है तो उसे यज्ञ से जोड़ देना चाहिए निश्चित ही परिणाम सुखदाई होगा!

आचार्य रविकांत जी

( श्री राम जन्मभूमि मंदिर अयोध्या

         अयोध्या उत्तर प्रदेश ) 

 

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